पुरखों ने रखा है नाम, अब बन गया अपमान

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पुरखों ने रखा है नाम, अब बन गया अपमान




विप्र.
बांका : 

रविवार विशेष..........

- दो सौ से अधिक गांव वाले अपने गांव का नाम बोलने में हो जाते असहज

- कुत्ताडीह, बौका, लुल्हा, बकरार जैसे गांवों का नाम बोलते ही आ जाती है मारपीट की नौबत

- बदलाव के लाख प्रयास के बाद भी नहीं छूटा रहा पीछा

शहर से सटा एक गांव है। नाम है कुत्ताडीह। हम यहां के स्कूल का हाल जानने जा रहे थे। यहां एक ग्रामीण से पूछा कि क्या यही कुत्ताडीह है? इसपर वह सिरे से भड़क गया। गाली-गलौज की भाषा से शुरू होकर वह लाठी-डंडे तक पहुंच गया। हमारी बात वह मुश्किल से समझा तब बोला इस गांव का नाम कमलडीह है। वह हमें लेकर स्कूल तक गया पर उसने या उसके साथ आए अन्य किसी ग्रामीण ने यह स्वीकार नहीं किया कि इस गांव का नाम कुत्ताडीह है जबकि सामने स्कूल के भवन पर बड़े-बड़े अक्षरों में नाम अंकित है- प्रोन्नत मध्य विद्यालय कुत्ताडीह।

यह पुरखों द्वारा रखे गए नाम से उपजे अपमान का प्रकटीकरण है। डीह यहां पुरखों की जगह को कहते हैं। ऐसे में यह नाम स्वभाविक तौर पर यहां के लोगों में चिढ़ पैदा करता है। लोगों ने अपने स्तर से नाम तो बदल दिया है पर गांव का पौराणिक नाम साथ छोड़ ही नहीं रहा। बच्चों की टीसी, प्रमाण पत्र, नामांकन, परिचय पत्र सब में कुत्ताडीह ही लिखा जाता है। आसपास के गांव के लोग भी इसे कुत्ताडीह नाम से ही जानते-बोलते हैं। पास के गांव के बुजुर्ग दीनानाथ ने बताया कि 10-20 साल पहले पहले तो चुहलबाज टाइप लोग कुत्ताडीह का संधि विच्छेद कर वहां के लोगों को चिढ़ा देते थे। यह इतना हुआ कि अब वहां के लोगों को चिढ़ाने के लिए संधि विच्छेद की भी जरूरत नहीं पड़ती। गांव के मजाक वाले रिश्तेदार इस नाम का खूब मजा लूटते हैं।

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नाम बताने में असहज हो जाते हैं लोग

जिले में दो सौ से अधिक गांव ऐसे हैं जिनके नाम से वहां के ग्रामीण खुद असहज हो जाते हैं। शहर में ही डीएम कोठी के पास एक मुर्गीडीह मोहल्ला है। वहां रहने वाले इसे अब बाबूटोला कहते हैं। पर, स्कूल का नाम प्राथमिक विद्यालय मुर्गीडीह ही है। बांका प्रखंड में ही कुछ गांव पातालडीह, कारीझांक, कुकुर गोड़ा, कुत्ताबारी, चमरेली, सुगरकोल भी है। बेलहर प्रखंड में बड़ा गांव बौका, बकरार है। बकरार वाले इसे अब विष्णुनगर कहते हैं। स्कूल और सरकारी कागज से बकरार पीछा नहीं छोड़ रहा है। कटोरिया का भेमिया, बंदरी, भलुआदमगी, भैंसालोटन, गिद्धमरवा, बंदरचुआ इसी तरह का नाम है। फुल्लीडुमर में नाढ़ा, नाढ़ातरी, नाढ़ा पहाड़, चेंगाखांड़ कुछ इसी तरह असहज करने वाले नाम हैं। अब ग्रामीण चिढ़ें या उखड़ें, आप घर के सदस्यों का तो नाम बदल सकते हैं, मगर सरकारी कागजों गांव का नाम बदलना लोहे के चने चबाने जैसा है।

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हर नाम के पीछे उसका बहुत कुछ इतिहास छुपा होता है। पहले के जमाने में लोगों के नाम भी कैला, करूआ, शनिचरा, ऐतवरिया, मंगला खूब होता था। समाज आगे बढ़ने पर अब गरीब और निरक्षर परिवार में भी ऐसा नहीं मिलता है। लोग इसे बदल रहे हैं। गांव का नाम भी बदलना चाहिए। लेकिन, इसकी प्रक्रिया काफी जटिल होने के कारण ग्रामीणों की मुश्किल कम नहीं हो रही है।

सोमकृष्ण, युवा साहित्यकार

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